"प्रेम रोग" आजादी के बाद की प्रेम कहानी है। जब राजे-रज़वाड़ों का बोलबाला था। जिनकी दया के लिए सारी बस्ती आखें बिछाये उनकी ओर ताका कारती थी। वे सामाजिक बंधन और मान्यताएं आज भी भारत में मौजूद हैं। उम्मीद है, कल नहीं होगी।
यह कहानी है राधनपुर बस्ती के एक गरीब और अनाथ लड़के देवधर की। रिश्ते के नाम पर पुजारी का अनाथ भांजा। अपने गुजारे के लिए गांव-घर में छोटा मोटा काम कर दिया करता था। और खाली वक्त में छोटे ठाकुर वीरंसिंह की इकलौती बेटी मनोरमा को पढ़ाया करता था। उसी तरह ठाकुरों की दया के सहारे, उनकी चारदीवारी के इर्द-गिर्द पला। और आज उनकी मदद के सहारे शहर में पी.एच.डी. कर रहा है।
और मनोरमा-जवानी की देहलीज पर कदम रखने के बावजूद उतनी ही भोली और मासूम है, जितनी बचपन में थी। आठ साल बाद, देवधर शहर से गांव में आता है। मनोरमा से मिलकर उसे लगा कि इतनी लम्बी जुदाई के बावजूद वह उसे नहीं भुला पाया है। मनोरमा उसके रोम रोम में बस चुकी है। बचपन का मेल जोल आज एक लाइलाज रोग बन कर लग गया है उसे "प्रेम रोग"।
मासूम मनोरमा हमेशा की तरह देव के साथ हंसती बतियाती यहां तक कि देव से प्यार-मोहब्बत की बातें भी पूछती। लेकिन खुद प्यार का मायने नहीं समझती। जबकि देव यही समझता है कि मनोरमा भी उसे उनता ही प्यार करता है, जितना कि वह करता है।
देवधर की गलत फहमी दूर करने के लिए छोटी बहन राधा उसे ताकीद करती है। लेकिन देवधर जात-पात ऊँच नीच के भेद भाव को भूलकर बड़े राजा ठाकुर से मनोरमा का हाथ मांगने जाता है। वहां ठगा सा रह जाता है। वह बड़े ठाकुर उसे सुमेरगंज के राजा वीरेन्द्र प्रताप से मिलवाते है, जिनके छोटे भाई कुंजर नरेन्द्र प्रताप से वह मनोरमा का ब्याह करना चाहते हैं। देवधर चोट खाया सा खामोश रह जाता है। अपनी बात जबान पर नहीं ला पाता। जहाँ एक ओर देवधर मनोरमा के ब्याह की तैयारी में जी-जान से जुटा है, वहीं दूसरी ओर मासूम मनोरमा देवधर से कहती है कि इन गलियों और चैबारों की ओर अपना रूख मत करना। क्योंकि वह खुद परदेसियों तरह यह जगह छोड़कर चली जायेगी। और देव कौन रह जायेगा, जिससे मिलने आयेगा वहाँ?
फिर आता है मनोरमा के ब्याह का दिन।
जब देवधर खुद अपने हाथों से उसे डोली में बिठाता है। आंखों में उसका खुशियों की कामना लिये और चेहरे पर सब कुछ लुट जाने की मुस्कराहट। आंसू सूख चुके थे उसके दिल पथरा गया था सदमे से। मनोरमा ससुराल चली जाती है। और देवधर शहर लौट जाता है।
रमा की बदकिस्मती अपनी पहली करवट लेते ही कुंवर नरेन्द्र प्रताप की हमेशा के लिए उससे छिन लेती है। सुहागन मनोरमा शादी के चैथे रोज विधवा हो जाती है।
फिर शुरू होता है समाज के बनाये रीति-रिवाज और नियमों का दोर। जिसके बोझ तले मनोरमा रोंद दी जाती है। लेकिन उसी वक्त राजरानी (वीरेन्द्र प्रताप की पत्नी) आकर उसे अपने साथ सुमेरगंज ले जाती है। यहाँ मनोरमा को समझोता करना था अपना बदकिस्पती से, जी अब किस्मत बन चुकी थी उसकी।
अपनी जिन्दगी को नये सिरे से बसाने जा रही थी मनोरमा कि एक भयानक तूफानी रात को व्यभिचारी वीरेन्द्र प्रताप आकर मनोरमा के साथ बलात्कार करता है। अपना सब कुछ खोकर वापस अपने घर लौट जाती है।
शहर में देवधर, लाख कोशिशों के बाद भी मनोरमा को नहीं भुला पाया। एक रोज अपनी बहन राधा से मनोरमा का हाल लेने जाता है। जहाँ उसे पता चलता है कि उसकी मनोरमा विधवा हो चुकी है। वह फौरन गांव लौट आता है मनोरमा से मिलने के लिए।
मनोरमा जिन्दा लाश बन चीकी है। दुःख तकलीफों का ज्वालामुखी देवधर को देखकर लावा बनकर फूट पड़ता है। देव के कंधों पर सर रखकर मनोरमा जी भर कर रोती है।
मनोरमा को पलभर की खुशी देना, देवधर का मकसद बन जाता है। वह मनोरमा को हंसते-मुस्कराते देखना चाहते है। जिस मुस्कराहट के लिए मानो हजारों करोड़ों फूल खिलने का इंतजाम कर रहे थे और एक दिन मनोरमा हंसती है। मुस्कराती है, जिसके साथ-साथ हजारों करोड़ों फूल खिलकर बिखर जाते है।
लेकिन मनोरमा की यह हंसी, सारे समाज को जहर लगने लगती है। वह ताने कसता है प्यार की पवित्रता पर दुहाई देता है सदियों से चली आ रही परम्पराओं की। जिसका मुंहतोड़ जवाब देता है देवधर। वह आज भी विधवा मनोरमा को अपनाने को तैयार है क्योंकि वह उससे प्यार करता है।
लेकिन उसके प्यार के जवाब में मनोरमा देवधर को थप्पड़ क्यों मारती है? क्या मासूम मनोरमा जिन्दगी भर नहीं जान पाती कि वह भी देवधर को प्यार करती है? ठाकुर अपना इज्जत की खातिर देवधर की खाल उधड़ देते हैं। क्या इन सबसे देवधर बस्ती छोड़कर भाग जाता है? क्या देवधर, मनोरमा की इज्जत लूट जाने की बात जानने के बाद भी उसे अपनाने को तैयार है? क्या राक्षस वीरेन्द्र प्रताप, मनोरमा को दोबारा सुमेरगंज ले जाने में सफल हो सका? क्या देवधर मौत से डरता है? ऐसे इलइलाज रोग का इलाज क्या है?
इन सारे सवालों का जवाब है राजकपूर कृत- "प्रेम रोग"।
(From the official press booklet)